Gyanvapi : ज्ञानवापी का असली सच- मंदिर या मस्जिद
वाराणसी में काशी विश्वनाथ धाम से सटा ज्ञानवापी परिसर है। जहां आज एक मस्जिद खड़ी है, जिसमें मुस्लिम समाज नमाज अदा करता है। इसी ज्ञानवापी परिसर को लेकर सनातन परंपरा में आस्था रखने वाले लोगों का कहना है कि इस परिसर में भगवान भोलेनाथ का विशाल शिवलिंग है। वहीं मुस्लिम पक्ष का कहना है कि परिसर में ऐसा कोई भी साक्ष्य नहीं है, जो मंदिर होने का प्रमाण दे।
हालांकि, अभी यह विवाद न्यायालय में विचारधीन है। लेकिन, अभी कुछ दिनों पहले ही वाराणसी की ही जिला अदालत ने Gyanvapi परिसर में स्थित तहखाने में पूजा पाठ करने की मांग को मानते हुए, यहां पूजा और राग-भोग करने का आदेश दिया था। जिसके परिणाम में जिले के डीएम समेत आला अफसरों ने आदेश का पालन करते हुए यहां पूजा पाठ शुरू करवा दी।

जिसका विरोध वाराणसी के मुस्लिम समाज ने करते हुए, आसपास की दुकानों को बंद रखा। ऐसे में ये जानना जरूरी है कि आखिर इतिहास क्या कहता है? क्या वाकई में हिंदू पक्ष की दलीलों में Gyanvapi परिसर मन्दिर है? क्या जो मुस्लिम पक्ष कह रहा है, वहीं सच मानना चाहिए। आइए इस पूरे विवाद को जानने के लिए इतिहास के पन्नों को पलटा जाए। जिससे पता चल सके कि किस पक्ष की कितनी दलीलें सही है या गलत।
दरअसल, बताते चलें कि Gyanvapi शब्द दो हिंदी शब्दों से मिलकर बना हुआ है। “ज्ञान+वापी”, जिसमें ज्ञान का अर्थ परम तत्व और वापी का अर्थ बावड़ी या तालाब से है। यानी मोक्ष को प्रदान करने वाला ज्ञान यानी शिवत्व की वापी ही ज्ञानवापी है। काशी में स्थित ज्ञानवापी का उल्लेख हिंदू धार्मिक पुराणों में भी मिलता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार स्वयं आदि देव भगवान शिव ने अपने ज्ञान स्वरूप का प्रतिपादन करने के लिए ईशान रूप में त्रिशूल से भूमि का उत्खनन कर जल निकालकर ज्ञान प्राप्ति हेतु अविमुक्तेश्वर स्वरूप की आराधना की। ज्ञान प्राप्ति में सहायक यह वापी ही काशी में ज्ञानवापी के नाम से प्रसिद्ध हो गई।

पौराणिक मान्यताओं को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण यानी एएसआई की रिपोर्ट ने भी सच साबित कर दिया है। अब Gyanvapi के व्यास तहखाने में राग- भोग और पूजा आरती की अनुमति 30 साल बाद फिर से 31 जनवरी को मिल गई। और विधिवत पूजा संपन्न भी हुई। एएसआई की रिपोर्ट में सनातन धर्म संस्कृति के अनेक चिन्ह वैज्ञानिक सर्वे में मिले हैं। ऐसे में इस स्थापना को बल मिलता है की मस्जिद से पहले यहां मंदिर था। काशी के प्रख्यात सांस्कृतिक भूगोलवेत्ता और काशी हिंदू विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर प्रो. राणा पीबी सिंह के अनुसार, गणितीय व खोगोलीय मापन में भी ज्ञानवापी की स्थिति सिद्ध है।
मध्यकाल में विध्वंस के बाद बनाए गए मंदिरों का स्थान इसके आसपास खिसकता रहा। लेकिन अंतिम बार मुगल शासक अकबर के शासनकाल में बना मंदिर ज्ञानवापी पर ही स्थित था। औरंगजेब इसे पूरी तरह नष्ट न कर सका और मंदिर के शिखर को ही ढक कर ऊपर से गुंबद बनाकर मस्जिद का रूप दे दिया। शरीर में जो स्थान नाभि का है, वही काशी में ज्ञानवापी का है।

जब भी काशी में धार्मिक, वैज्ञानिक, भौगोलिक, गणितीय या खगोलीय कोई माप करनी हो ज्ञानवापी को केंद्र में रखकर ही करना होगा। स्कंद पुराण भी काशी का क्षेत्रफल इसी तरह बताता है। इसके काशी खंड में वर्णित है कि यदि काशी का विस्तार जानना हो तो ज्ञानवापी को केंद्र में रखकर ही एक योजन का वृत्त खींचा जाए जो जो क्षेत्र इसमें समाहित है, वही अभी मुक्त क्षेत्र कहलाता है।
Gyanvapi ज्ञानवापी को कब किसने तोड़ा और किसने निर्माण करवाया
बता दें कि काशी विश्वनाथ धाम समेत ज्ञानवापी का निर्माण सबसे पहले 11वीं सदी में गहड़वाल शासकों द्वारा प्राचीन मंदिर का निर्माण करवाया गया। इसके बाद 12वीं (1194-97) सदी में मुस्लिम शासक मोहम्मद गोरी के शासनकाल में कुतुबुद्दीन ऐबक के द्वारा मंदिर तोड़ने का प्रयास किया गया। इसके बाद 1230 में इल्तुतमिश के शासन में गुजरात के व्यापारी द्वारा मंदिर का पुनः निर्माण करवाया गया। इसके बाद वर्ष 1447 में जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह शर्की ने मंदिर पर हमला किया और मंदिर तोड़कर रजिया बीवी की मस्जिद बनवाई।

और, वर्ष 1490 में मुस्लिम शासक सिकंदर लोदी ने मंदिर को ध्वस्त किया। वर्ष 1585 में मुगल शासक अकबर के राजस्व मंत्री टोडरमल, मानसिंह ने नारायण भट्ट के सहयोग से टोडरमल के पुत्र गिरधारी की निगरानी में निर्माण करवाया गया। इसके बाद वर्ष 1632 में शाहजहां ने इसे तोड़ने का प्रयास किया, लेकिन असफल रहा।

वर्ष 1669 में मुगल बादशाह औरंगजेब ने जब हिंदुस्तान की सत्ता संभाली। तो, उसने इस मंदिर पर भी अपनी कट्टरपंथी निगाह डाली। इसके बाद इसने भी मंदिर परिसर को तोड़ इस जगह पर औरंगजेबी मस्जिद का निर्माण करवाया। जो आज ज्ञानवापी मस्जिद के नाम से जानी जाती है। इसके बाद वर्ष 1752 में दत्ता जी सिंधिया और मल्हार राव ने मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया।
वर्ष 1776 -78 में महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने इस मंदिर का निर्माण करवाया जो आज वर्तमान स्वरूप में दिखाई देता है। मंदिर निर्माण के बाद पंजाब राज्य के राजा महाराजा रणजीत सिंह ने इसके शिखर मंडप पर 1000 केजी सोना मढ़वाया था। काफी वर्ष बीत जाने के बाद 21 दिसंबर 2021 को विश्वनाथ धाम के नव्य-भव्य परिसर बनने के बाद मंदिर के गर्भ गृह को स्वर्णमंडित करवाया गया।
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Rajesh Mishra
राजेश मिश्रा
आप उत्तर प्रदेश के वाराणसी के रहने वाले हैं। आपने राजकीय पॉलीटेक्निक, लखनऊ से पत्रकारिता की पढ़ाई की है। आप ऐतिहासिक जगहों पर घूमना और उनके बारे में जानने और लिखने का शौक रखते हैं।
आप THE HIND MANCH में लेखक के रूप में जुड़े हैं।